बागी मन
बागी मन
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न तो किसी स्वार्थवश
न ही किसी भय के कारण
मैं बागी हो गया हूं
मेरा मन बागी हो गया है!!
देख रहा हूं कि मेरे आसपास
बूढ़ा प्रजातंत्र घूम रहा है उदास
गुंडों के खौफ से
चुप्पी साधे जमीन पर लोट रहा है
त्यागकर जीवन की आस
अरमानों का गला घोंट रहा है
खून का कतरा कतरा बहाकर
मिली हुई जनता की आज़ादी
फिर से काले अंग्रेजों की
भेंट चढ़ गई है
सियासतदानों के पौ बारह हैं
रियासत की ही मुश्किलें बढ़ गई हैं
मुझे राम राज्य का नहीं पता
मुझे तो सिर्फ इतना ही ज्ञात है
कि जनता से बढ़कर कोई नहीं है
जनता दुखी है ये तो बुरी बात है
राजतंत्र के पूरे हो चुके हैं दिन
कभी लौटने वाले नहीं हैं
अब तो जनता ही फैसला लेगी
शिक्षा स्वास्थ्य सड़क बिजली
पानी की व्यवस्था किस तरह से होगी?
नहीं है अभाव कोई मेरे देश में
शस्य श्यामला इस धरती पर
प्रकृति दत्त प्रचुर संसाधन हैं
किसान कर्मठ श्रमवीर हैं
फिर कैसा है यह माहौल व डर?
अपने किरदार को निभाने के लिए
हर किसान/मजदूर को
सामने आना होगा
पूंजीपतियों और दबंगों को
अपना बर्चस्व दिखाना होगा
यह धरती किसी एक की बपौती नहीं
इस पर सबका समान अधिकार है
है यह सबकी माता
इस मिट्टी से हर किसी को प्यार है
कुछ करूं मैं भी अपने देश की खातिर
ऐसी तमन्ना अब दिल में जागी है
छोड़ो अब अन्याय और भेदभाव
ऐ मेरे वतन के रहनुमाओं
मैं भी बागी हो गया हूं
ये दिल भी मेरा बागी है!!
पद्म मुख पंडा
सेवा निवृत्त अधिकारी छत्तीस गढ़ राज्य ग्रामीण बैंक
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