शीर्षक :एक मुठ्ठी राख
शीर्षक :एक मुठ्ठी राख
विधा :गीत
कितना भी हो विस्तार किसी का
अंतिम परिणाम हो एक सभी का
यही अंजाम यही साख
बस बस एक मुट्ठी राख...
था नाम इतना की जमीन के किनारों से
आसमा के फैलाव तक तुम ही तुम थे
मूँदी आंख तो बची इतनी ही साख
बस एक मुट्ठी राख....
कांपती थी जमीं थरथराता था आसमान
बलशाली नहीं था कोई तेरे सामान
जब गिरा तो बचा खाक
बस बस एक मुट्ठी राख...
कोई नहीं जानता था उन्हें
बेनाम जी के बिना मर गए
उनकी भी वही नियति वही हास्
एक मुट्ठी राख...
सोने में खाते चांदी में पीते
भाग्यशाली हीरे पहन इतराते रहे
रेशम तन पे लहराते रहे
बची वहीं अंतिम कीमत
निकली जो सांस
एक मुट्ठी राख...
कितने अपने थे क्या क्या सपने थे
एक क्षण भी अकेले नहीं
जब चले तो कोई ना था
इतने थे अपने परकोई नहीं साथ
बस बचे एक मुट्ठी राख...
स्वरचित : सुनीता द्विवेदी
पटेलनगर कानपुर उत्तरप्रदेश
9459121050
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