कविता ॥ मजबूरी ॥
कविता ॥ मजबूरी ॥
रचना ॥ उदय किशोर साह ॥
मो० पो० जयपुर जिला बाँका बिहार
अन्नदाता की मजबूरी को
कोई मिट्टी ही समझ पाता है
मिट्टी इनका दर्द सुनता है
जबकि ये मिट्टी से ही लड़ता है
जब बारिस नहीं होती है
खड़ा फसल सूख जाता है
किसानों की इस बेबसी को
कहाँ बादल समझ पाता है
मछली की मनःस्थिति को
नदी की जल ही समझ पाता है
जल बिन मछली की जीवन
तड़प तड़प कर लुट जाता है
जल मीन को जिन्दा रखता है
पर मानव को डुबो मार देता है
जब इन्सान का तन जल से बना है
फिर भी डूबा कर मार जाता है
इस जग में भूखा की दर्द को
कोई भूखा ही समझ पाता है
अन्न की आभाव की बैचेनी
कोई भूखा ही समझ पाता है
जिन्होंने कभी भूखा नहीं सोया
वो भूख की दर्द को क्या समझेगा
भूख की इस बेबसी को जहाँन में
कोई भूखा ही समझेगा
अंधेरे की क्या है मजबूरी
अंधेरा ही समझ पाता है
दूर कैसे हो अंधेरापन
कोई चिराग ही समझ पाता है
दोनों इक दूजे का है विरोधी
फ़िर भी इन्तजार करता है
जब चिराग जल उठता है
अंधेरा डर कर छुप जाता है।
उदय किशोर साह
मो० पो० जयपुर जिला बाँका बिहार
9546115088
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