बस यही हमारा परिचय है, बस यही मेरा इतिहास रहा। कह दिया बहुत कुछ हमने हैं, फिर भी कुछ हमने नहीं कहा।।

 बस यही हमारा परिचय है,

           बस यही मेरा इतिहास रहा।

कह दिया बहुत कुछ हमने हैं,

         फिर भी कुछ हमने नहीं कहा।। 



             सहृदय सुधी कवि वृंद सादर नमस्कार वंदन एवं अभिनंदन। आज मै अपने जीवन का एक ऐसा रहस्य खोलने जा रहा हूँ, जिसे शायद आप नहीं जान रहे होंगे। आज मैं अपना असली परिचय आपके सामने रखना चाहता हूँ। इसलिए नहीं कि आपकी सहानुभूति प्राप्त कर सकूँ, इसलिए भी नहीं कि मै प्रसिद्धि प्राप्त कर सकूँ। बल्कि इसलिए कि आप मेरे संबंध में अपनी विचारधारा और धारणा को एक स्थिर आकार दे सकें। अभी तक आप जान रहे होंगे कि मैं एक स्वस्थ और सकलांग व्यक्ति हूॅं। तो इस धारणा को बदल लीजिए। नीचे मेरे छायाचित्र को देखिए। बस यही मेरा असली परिचय है। मैं एक विकलांग व्यक्ति हूॅं। मेरा दाहिना हाथ कन्धे के पास से कटा हुआ है। जैसा कि आप मेरे छायाचित्र में देख रहे होंगे। अब आपको कौतूहल होगा कि आखिर यह सब कब कैसे और क्यों हुआ ? तो आइए मैं आपकी जिज्ञासा को शान्त करता हूँ। मित्रों बचपन की बात है मुझे समय ठीक से नहीं याद है। क्योंकि उस समय मै बहुत छोटा था। हाँ इतना जरूर याद है कि मै उस समय कक्षा छ: में पढ़ता था। उम्र यही कोई ग्यारह बारह साल रही होगी ठीक से वह भी पता नहीं है। मै अपने ननिहाल में था। सुन्दर स्वस्थ और बहुत ही सुशील बालक। सभी लोग मेरी प्रशंसा करते थे। दैवयोग से हाँथ में एक लम्बी रस्सी लेकर मै खेलते खेलते कारखाने के अन्दर चला गया; जहाँ एक हैवी आयल इंजन चल रहा था और बाहर खलिहान में गन्ने की पेराई हो रही थी। सभी लोग काम में व्यस्त थे। वहाँ कोई नहीं था। अमूमन कारखाने का दरवाजा बन्द रहा करता था। किन्तु उस दिन कुछ ईश्वर की लीला होने वाली थी इसलिए दरवाजा खुला छोड़ दिया गया था। खेलते खेलते मैं आयल इंजन के पास पहुँच गया और शरारत वश मैंने उस रस्सी को जिसका एक छोर अपने दाहिने हाथ में अच्छी तरह से लपेट रखा था, इंजन के घूमते हुए ह्वील पर फेंक दिया। रस्सी ह्वील में लिपट गई और चूँकि उसे मैंने हाथ में अच्छी तरह से लपेट रखा था इसलिए वह मेरे हाथ से छूट नहीं सकी। और उसके बाद क्या हुआ मुझे कुछ भी मालूम नहीं। जब मुझे होश आया तो मैंने अपने आप को स्वरूपरानी नेहरू चिकित्सालय प्रयागराज जो उस समय इलाहाबाद के नाम से जाना जाता था; के इमरजेंसी वार्ड में एक बेड पर पड़ा पाया। बचपना था माँ बाप के कन्धों पर सारा भार था, जिंदगी अच्छे से चल रही थी। इसलिए न भविष्य की कोई चिंता थी और न ही वर्तमान में कोई गम था। दवाओं के असर से दर्द नहीं हो रहा था। इसलिए मुझे कोई खास चिन्ता नहीं हुई। हाँ इस बात को लेकर मैं खुश जरूर था कि चलो अब पढ़ने लिखने से फुर्सत मिली। क्योंकि उस समय मेरी दृष्टि में यदि कोई कठिन काम था तो वह पढ़ाई करना। इसलिए नहीं कि मैं पढ़ने में कमजोर था। पढ़ने में तो मैं शुरू से ही मेधावी था। बल्कि इसलिए कि पढ़ाई स्वच्छंद रूप से खेलने में बाधा पँहुचाती थी। समय गुजरने लगा और मैं अब अपने आप को कुछ स्वस्थ महसूस करने लगा। एक दिन पिताजी ने एक कॉपी और पेंसिल लाकर मेरे बेड पर रख दिया। उसे देखते ही मैं समझ गया की मुझे फिर से पढ़ाई के जाल में फँसाने का इंतजाम हो रहा है; जिससे मैं अपने आप को मुक्त समझ रहा था। दु:खी मन से मैंने जानते हुए भी पिता जी से पूछा यह क्या है? पिताजी ने गम्भीर होकर मुझसे कहा कुछ लिखने का अभ्यास करो। क्योंकि मैं पहले दाहिने हाथ से लिखा करता था। भारी मन से मैंने काँपी और पेंसिल उठाया और लिखने का असफल प्रयास करने लगा। मै कुछ भी नहीं लिख पाया। कभी आड़ी तिरछी रेखाएं खिंचती तो कभी पेंसिल ही हाँथ से छूट कर गिर जाती थी। लिखना मुझे मुश्किल ही नहीं असम्भव सा लगा। किन्तु पिताजी ने बड़े ही धैर्य पूर्वक मेरा हौसला बढ़ाया। कई ऐसे लोगों के उदाहरण दिया जो उस समय बहुत ही मुश्किल भरा काम कर रहे थे। उनमें से एक उदाहरण जो मुझे अच्छी तरह याद है एक ऐसे व्यक्ति का था जिसके दोनों हाँथ नहीं थे और वह पैरों से लिखा करता था। मुझमें हिम्मत जागी और मै बड़े मनोयोग से लिखने का अभ्यास करने में जुट गया। एक सप्ताह बाद पेंसिल सधने लगी और अक्षर बनने लगे। किन्तु लिखने के गति बहुत धीमी थी। निरन्तर अभ्यास करते करते अब मैं अच्छी तरह से लिखने लगा था। अस्पताल में लगभग छः माह तक रहा और वहीं पर लिखने का अच्छा अभ्यास हो गया था। इसलिए पढ़ाई में व्यवधान नहीं हुआ और मै कक्षा छ: में ही पुनः प्रवेश लेकर पढ़ाई करने लगा। मैं आज जिस दशा में हूॅं वह सब मेरे परम पूज्य पिता श्री की देन है। पिताजी तो अब इस दुनिया में नहीं हैं, पर उनके आदर्श, उनकी शिक्षाएं और उनके निर्देश आज भी मेरा मार्गदर्शन कर रहे हैं। यदि पिताजी ने मेरा उत्साहवर्धन न किया होता तो आज मैं कहाँ होता और क्या होता है इसे आप खुद समझ सकते हैं। इसलिए आप सब को मेरा शुभ संदेश है कि माता पिता और गुरुजनों का कभी भी अपमान मत करना। सदैव उनका सम्मान करना और उनके बताए हुए मार्ग पर चलना। क्योंकि माता पिता और गुरुजन वह चीज हैं; जिनके आशीर्वाद से तकदीर का लिखा बदल जाता है। 


                     हंसराज सिंह "हंस" 

                    सोनाई, करछना, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश

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