शीर्षक-उत्कंठा

 शीर्षक-उत्कंठा



जो  भरपूर सामर्थ्य रखती है 

अपनी छाती से सींच कर 

तुम्हें खड़ा करने का,

जिसके अंगुलियों के स्पर्श से

साधारण से कच्चे धागे 

परिणत होते हैं 

तेरी कलाई पर अखंड 

रक्षक के रूप मे 

जो चौथे फेरे में, 

झट से तुम्हारे आगे आकर 

तुम्हारे हर संकट में 

कवच बने रहने का 

वचन लेती है 

उसके लिए तुम इस 

वहम में जी रहे हो 

कि 'संरक्षक हो उसके सुनो!

तमाम सम्भावित किरदारों 

को जी लेती है स्त्री 

बस नहीं जी पाती है तो 

स्वयं की तरह ,

क्यूंकि वो तुम्हें तुम्हारी तरह 

जीने देने की उत्कंठा रखती है।


क्षमा शुक्ला,वरिष्ठ कवयित्री व 

शिक्षिका,औरंगाबाद-बिहार

77599 96119

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