शीर्षक-मणिकर्णिका


शीर्षक-मणिकर्णिका 



सरसिज समान तो मैं भी थी,

मृदुता का प्रमाण तो मैं भी थी,

पर भूल गई हर मृदुलाई,

हंस हवन करी मैं तरुणाई।

अंगारों पर थी मैं चली,

जब थी अपनों से मैं छली,

परिमा भीतर ना रह पाई,

कुत्सित विचार ना सह पाई।

झेली हर झन्झावातों को,

हर टीस भरी सौगातों को,

हर अहम वहम को तोड़ी मैं,

निज स्वाभिमान ना छोड़ी मैं ।

'अपनाना' बड़ी कोई बात ना थी,

पर थी अस्मत पर घात लगी,

जो अंक भारती पल रहे थे,

भीतर ही भीतर छल रहे थे।

त्रस्त हो माँ जब अकुलाई थी,

तब मैने शस्त्र उठाई थी,

तब 'लक्ष्मी' रुप ना सहज लगा,

कटार धार कर रुप सजा।

निज शौर्य अदम्य शिखर तक था,

भय शत्रु के नश नश में था,

नभ तक पंहुचा गौरव पताका,

यूँ अमर रही मै "मणिकर्णिका"।

मैं कल भी थी, मैं अब भी हूँ,

भूलो मुझको,मैं तब भी हूँ,

ना समय स्वयं पर भारी हो,

मेरी जैसी हर नारी हो।

जब व्याकुल मन का कोना हो,

ना मन ही मन में रोना हो,

निज शक्ति को पहचानो तुम,

अब बढ़ कर शस्त्र उठा लो तुम ।

खुद को ना बेबस लाचार करो,

पीड़ाओं का संहार करो,

व्योम को छू ले अपनी प्रभा

हर एक नारी है 'मणिकर्णिका'।


क्षमा शुक्ला,शिक्षिका

औरंगाबाद-बिहार

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