शीर्षक-मै स्त्री हूँ
शीर्षक-मै स्त्री हूँ
विस्तार से भी मैं विस्तृत हूँ,
मैं स्वयं सकल एक सृष्टि हूँ,
कारण कारक सब स्वयं हूँ मैं,
उपयुक्त भाव विभक्ति हूँ।
मैं स्त्री हूँ........
एक पात्र नहीं सकल किस्सा हूँ,
बस मूल नहीं हर हिस्सा हूँ,
तटिनी बन कर भी तट पर हूँ,
रह प्यासी सबकी तृप्ति हूँ।
मैं स्त्री हूँ...
कहीं वस्तुनिष्ठ प्रश्नों सी मैं,
कहीं अनिवार्यता भी कम है,
हर इम्तेहान की मैं फिर भी,
एक वांछित सी उपलब्धी हूँ।
मैं स्त्री हूँ.......
हो प्रेम तो मोम सी पिघलती मैं,
कई कई रूपों में ढलती मैं,
आघात हृदय पर पाते ही,
जड़वत पत्थर की मूर्ति हूँ।
मैं स्त्री हूँ.....
दुर्गम राहों पर बढ़ी हूँ मैं,
कहीं तुंग शिखर पर चढ़ी हूँ मैं,
कहीं घुटती चारदीवारी में,
एक शब्दहीन अभिव्यक्ति हूँ।
मैं स्त्री हूँ......
निज मौन की भी आवाज हूँ होती
खुद ही खुद की परवाज़ भी होती,
कभी हृदय भार से मुक्त करूँ,
कभी भार की भी आसक्ति हूँ
मैं स्त्री हूँ.....
क्षमा शुक्ला,वरिष्ठ गीतकार कवयित्री व गजलगो,स्वतन्त्र लेखिका व स्तम्भकार,औरंगाबाद -बिहार
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